उस वक्त मैं 10 साल की थी। भारत-पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा था… हर तरफ दंगे मार-पीट, अगजनी देखने को मिलती थी। हर सयम यही डर लगा रहता था कि कोई आकर मार न दे… हमारे सामने ही कई लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका था। हमारा घर फूस का था, जिनके घर की छत टिन की थी, दंगइयों से बचने के लिए हम उनके यहां छिपने चले जाते थे।
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यह कहना है 88 वर्षीय जोगेश्वरी देवी का। उस वक्त देहरादून में ही फुलसनी में रह रहीं जोगेश्वरी भले ही 10 साल की थीं, लेकिन उन्हें काफी कुछ याद है। जिसे बतात हुए वो भावुक हो जाती हैं। कहती हैं कि युद्ध के समय और बाद का जीवन आसान नहीं था।
तब ठीक से लाइट नहीं थी, हम दीये जलाते थे। मगर कोई हमे देख न ले, इसलिए वो भी नहीं जला पाते थे। उस वक्त महंगाई बहुत बढ़ गई थी। राशन की दिक्कत थी। पानी नहीं मिलता था। कहीं जाना आना तो भूल ही गए थे। कपड़े तक ठीक से नहीं मिलते थे। हालांकि इन सबसे ज्यादा तो इसी बात की फ्रिक थी कि जान बची रहे…।